Blog–6
“नकारात्मकता”
24-1-2019
5:45pm
मित्रों,बहुत दिनों के बाद कुछ पोस्ट कर रहा हूँ।मैंने “बहुत दिनों के बाद कुछ लिख रहा हूँ” ऐसा नहीं कहा क्योंकि लिखना तो होते ही रहता है। कभी सफ़ेद कागज़ पर तो कभी अपने मानस पटल पर। व्यक्ति को लिखते रहना चाहिए। साइकोलॉजी अथवा मानसशास्त्र के अनुसार हमारे मस्तिष्क से हरदम कुछ न कुछ सृजित होते रहता है। अभिव्यक्त करने हेतु हम बोलकर या लिखकर अथवा अभिनय या अपनी भाव भंगिमाओं का उपयोग करते रहते हैं। किन्तु लिखना एक ऐसा माध्यम है जिसमे हम अपने शब्दों को आकार देते हैं। यह ऐसा है मानो अपनी दिमागी धूप को हाथ रुपी बिल्लोरी कांच के माध्यम से अक्षरों में केंद्रित करके कुछ प्रज्वलित करने का प्रयास करना। अस्तु…
आज की इस पोस्ट का कारण है मानवी वृत्ति के विभिन्न पहलुओं का दर्शन कराना। पिछले कई वर्षों से मैं अपने क्लिनिक में आने वाले लोगों के मानसिक स्वास्थ्य हेतु उनकी साइकोलॉजिकल काउन्सलिंग भी कर रहा हूँ। होम्योपैथी में साइकोलॉजी बहुत ही विस्तृत और गहराई से पढाई जाती है। चूंकि बचपन से ही विभिन्न व्यक्तियों के मन की थाह लगाने का प्रयास करना यह मेरे मनोरंजन का माध्यम रहा है। यही अवलोकन-क्षमता मेरे काम भी आयी।कालांतर में मैंने इसी क्षमता को एक गंभीर एवं सुसंस्कृत प्रोफेशन में परिणित कर लिया। अतः मैं बड़ों और बच्चों की व्यावहारिक काउन्सलिंग से लेकर वैवाहिक काउंसलिंग,करियर काउन्सलिंग एवं जेनेटिक काउंसलिंग भी बड़े मनोयोग से कर रहा हूँ। मनोवैज्ञानिक परामर्श देते समय एक साइकोलोजिस्ट को मरीज के भावनात्मक पक्ष को जानने हेतु उससे स्वयं भी भावनात्मक रूप से जुड़ना ही पड़ता है, तभी काउन्सलिंग सार्थक हो पाती है। ऐसे समय कई बार मनुष्य की नकारात्मक प्रवृत्तियों से भी पाला पड़ता है जिनको जानकर मन खिन्न हो उठता है। मनुष्य आज बहुत स्वार्थी और ढोंगी हो गया है। हमारे आसपास के ही लोगों की बात करें तो हमें केवल उनका सामाजिक रूप दिखता है। इसे मैं FAKE AURA अथवा आम भाषा में चोला कहता हूँ। काउंसलिंग के दौरान व्यक्ति से जब निजी प्रश्न धीरे-धीरे पूछे जाते हैं तभी वह अपने विराट स्वरुप की झलक दिखलाने लगता है। यह विराट स्वरुप भगवान् कृष्ण के विराट रूप जैसा दैदीप्यमान ही हो ऐसा ज़रूरी नहीं है; वरन वह “कृष्ण-विवर”(अंग्रेजी में BLACK HOLE)की तरह स्याह काला भी हो सकता है। वर्तमान परिस्थितियों में देश में घटित हो रही अनगिनत प्रिय-अप्रिय घटनाओं के पीछे यही मनोविज्ञान कार्य कर रहा है।अवचेतन मस्तिष्क जब परत-दर-परत उद्भेदित होता है,तभी यह ज्ञात होता है कि वस्तुतः हमारा मन एक ऊन के गोले जैसा है…एक उलझा हुआ गुच्छा… जिसका कोई ओर छोर नहीं है। व्यक्ति स्वयं पूरे जीवन काल में इसे नहीं जान पाता है। काउंसिलर्स भी पानी में डूबे हुए इस हिमखंड की केवल ऊपरी परत को हल्का सा ही छील पाते हैं। ऐसे में शीतल हवा का झोंका तब आता है जब कतिपय वास्तविक सज्जन मनुष्यों की काउंसलिंग होती है। कुछ लोगों की प्रवृति जैसे बाहर है वैसे ही अंदर से भी हैं। एकदम दैवीय। ऐसे लोगों के मन को टटोलकर अपार शांति की अनुभूति भी होती है। शुभ्र और स्याह दोनों तत्व हमारे मन के अंदर ही हैं। हमारा विवेक(अर्थात अच्छे और बुरे की समझ )ही वास्तविक छन्नी(फ़िल्टर)का काम करता है ताकि हम दैवीय या आसुरी वृति में से किसी एक का चुनाव करें। और यही चुनाव हर घटना को जन्म दे रहा है।
अंत में यही लिखूंगा कि-“सृजन प्रतिक्षण हो रहा है…दैवीय चाहिए या आसुरी यह निर्णय आपका है।”.
-मूल लेखक
डॉ.सुमित दिंडोरकर
B.H.M.S.,M.D.(Mumbai)
होम्योपैथ व काउंसिलर
मॉडर्न होम्यो क्लिनिक
(Estd.–1982)
